श्री शुक उवाच –
एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि ।
जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम ॥१॥

गजेन्द्र उवाच –
ऊं नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम ।
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि ॥२॥

यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयं ।
योस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम ॥३॥

यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं
क्वचिद्विभातं क्व च तत्तिरोहितम ।
अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षते
स आत्म मूलोsवत् मां परात्परः ॥४॥

कालेन पंचत्वमितेषु कृत्स्नशो
लोकेषु पालेषु च सर्व हेतुषु ।
तमस्तदाऽऽऽसीद गहनं गभीरं
यस्तस्य पारेsभिविराजते विभुः ॥५॥

न यस्य देवा ऋषयः पदं विदु-
र्जन्तुः पुनः कोsर्हति गन्तुमीरितुम ।
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो
दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु ॥६॥

दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलम
विमुक्त संगा मुनयः सुसाधवः ।
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने
भूतात्मभूता सुहृदः स मे गतिः ॥७॥

न विद्यते यस्य न जन्म कर्म वा
न नाम रूपे गुणदोष एव वा ।
तथापि लोकाप्ययसम्भवाय यः
स्वमायया तान्यनुकालमृच्छति ॥८॥

तस्मै नमः परेशाय ब्रह्मणेsनन्तशक्तये ।
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्य कर्मणे ॥९॥

नम आत्म प्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने ।
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि ॥१०॥

सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता ।
नमः कैवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे ॥११॥

नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुण धर्मिणे ।
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च ॥१२॥

क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे ।
पुरुषायात्ममूलाय मूलप्रकृतये नमः ॥१३॥

सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे ।
असताच्छाययोक्ताय सदाभासाय ते नमः ॥१४॥

नमो नमस्तेsखिल कारणाय
निष्कारणायाद्भुत कारणाय ।
सर्वागमान्मायमहार्णवाय
नमोपवर्गाय परायणाय ॥१५॥

गुणारणिच्छन्न चिदूष्मपाय
तत्क्षोभविस्फूर्जित मानसाय ।
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम-
स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि ॥१६॥

मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय
मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोsलयाय ।
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत-
प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते ॥१७॥

आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तै-
र्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय ।
मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभाविताय
ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय ॥१८॥

यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा
भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति ।
किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययं
करोतु मेsदभ्रदयो विमोक्षणम् ॥१९॥

एकान्तिनो यस्य न कंचनार्थ
वांछन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः ।
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलं
गायन्त आनन्द समुद्रमग्नाः ॥२०॥

तमक्षरं ब्रह्म परं परेश-
मव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम ।
अतीन्द्रियं सूक्ष्ममिवातिदूर-
मनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे ॥२१॥

यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः ।
नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः ॥२२॥

यथार्चिषोsग्नेः सवितुर्गभस्तयो
निर्यान्ति संयान्त्यसकृत् स्वरोचिषः ।
तथा यतोsयं गुणसंप्रवाहो
बुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः ॥२३॥

स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यंग
न स्त्री न षण्डो न पुमान न जन्तुः ।
नायं गुणः कर्म न सन्न चासन
निषेधशेषो जयतादशेषः ॥२४॥

जिजीविषे नाहमिहामुया कि-
मन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या ।
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लव-
स्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम ॥२५॥

सोsहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम ।
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोsस्मि परं पदम् ॥२६॥

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योगरन्धित कर्माणो हृदि योगविभाविते ।
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोsस्म्यहम् ॥२७॥

नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग-
शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय ।
प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये
कदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने ॥२८॥

नायं वेद स्वमात्मानं यच्छ्क्त्याहंधिया हतम् ।
तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोsस्म्यहम् ॥२९॥

श्री शुकदेव उवाच –
एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं
ब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः ।
नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वात
तत्राखिलामरमयो हरिराविरासीत् ॥३०॥

तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासः
स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भि : ।
छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमान –
श्चक्रायुधोsभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः ॥३१॥

सोsन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्त्तो
दृष्ट्वा गरुत्मति हरिम् ख उपात्तचक्रम ।
उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छा –
नारायणाखिलगुरो भगवन्नमस्ते ॥३२॥

तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्य
सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार ।
ग्राहाद् विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रं
सम्पश्यतां हरिरमूमुच दुस्त्रियाणाम् ॥३३॥
– श्री गजेन्द्र कृत भगवान का स्तवन

श्री शुक उवाच

श्री शुकदेव जी कहते हैं कि:

समाधि और पूर्वजन्म का जाप

एवं अपने मन को हृदय में स्थिर करके, दृढ़ बुद्धि से साधक ने अपने मन को एकाग्र कर दिया। वह परम जाप (मंत्र) जो उसने पूर्वजन्म में सीखा था, उसे जपने लगा।

गजेन्द्र स्तुति

भगवद स्तुति की शुरुआत

गजेन्द्र भगवान की स्तुति करते हुए कहता है:
“ऊं नमो भगवते उस परम पुरुष को, जो चिदात्मा (चेतना स्वरूप) है, जिसने सृष्टि का प्रारंभ किया और जो सभी का स्वामी है। हम उनकी शरण में जाते हैं।”

ब्रह्म और सृष्टि की उत्पत्ति

जिसमें यह सम्पूर्ण ब्रह्मांड है, जिस कारण यह उत्पन्न हुआ है, जो इसे उत्पन्न और विनष्ट करता है, और जो स्वयं इस सब से परे है, हम उसकी शरण में जाते हैं।

भगवान की दृष्टि

जो परमात्मा अपनी माया से इस संसार को उत्पन्न करता है, जो कभी प्रकट होता है और कभी अदृश्य हो जाता है, वह स्वयंसिद्ध आत्मा हमें अपनी दृष्टि से देखता है। वह परम आत्मा हमें रक्षा प्रदान करें।

कालचक्र का प्रभाव

समय के प्रभाव से जब सभी लोकों के संरक्षक और सम्पूर्ण कारण नष्ट हो जाते हैं, तब भी एक अंधकारमय, गंभीर अवस्था में वह विभु (सर्वव्यापी) परमात्मा अपनी महिमा के साथ उस अंधकार के पार स्थित रहता है।

अनन्त परमात्मा

जिसका पद (स्थिति) देवता और ऋषि भी नहीं जानते, और कोई साधारण प्राणी उसे समझने में असमर्थ है। जैसे नट (नाटक करने वाला) अपनी आकृतियों से अद्भुत क्रियाएँ करता है, वैसे ही भगवान की लीलाएं भी मानव समझ से परे हैं।

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मुनियों की शरण

जिन मुनियों ने संसार के सभी बंधनों से मुक्त होकर, अपने शुद्ध हृदय से उसकी आराधना की है, वे उस मुनियों के स्वामी, सभी के साक्षी, परमात्मा की शरण लेते हैं।

जन्म और कर्म से परे भगवान

भगवान का न कोई जन्म है, न कर्म। उन्हें कोई नाम, रूप, गुण, या दोष भी नहीं है, परंतु सृष्टि की रक्षा के लिए वे अपनी माया से इन सबको धारण करते हैं।

अरूप और अनंत शक्ति के स्वामी

हम उन परमेश्वर को नमस्कार करते हैं, जो अरूप हैं और अनंत शक्तियों के स्वामी हैं। वे आश्चर्यजनक कार्य करने वाले हैं, जो हमारे लिए अचिन्त्य हैं।

आत्मा के दीपक

भगवान स्वयं आत्मा के दीपक और साक्षी हैं। वे उन सबसे दूर हैं जो वाणी या मन द्वारा समझा जा सके।

केवल्य के नाथ

भगवान केवल्य (मोक्ष) के स्वामी हैं, जिन्हें सतोगुण और निष्कर्म भाव से प्राप्त किया जाता है। हम उन भगवान को प्रणाम करते हैं जो मोक्ष के सुख को देने वाले हैं।

शांति और ज्ञान के स्वरूप

भगवान शांति और घोर (प्रलय) दोनों के रूप में हैं। वे समता और ज्ञान के घनीभूत स्वरूप हैं।

क्षेत्रज्ञ और प्रकृति के आधार

भगवान सर्वज्ञ हैं, जो प्रत्येक जीव और तत्व का साक्षी है। वे प्रकृति और पुरुष दोनों के मूल आधार हैं।

इंद्रियों के गुणद्रष्टा

भगवान सभी इंद्रियों के गुणों के दर्शक और सभी अनुभूतियों के कारण हैं। वे असत्य की छाया और सत्य के प्रकाश के रूप में विद्यमान हैं।

अद्भुत कारण

हम उन भगवान को नमस्कार करते हैं, जो इस संसार के सभी कारणों के कारण हैं, परंतु स्वयं किसी कारण से उत्पन्न नहीं हुए। वे माया के महासागर को पार करने का मार्ग दिखाते हैं।

माया के पार

भगवान माया के आवरण से परे हैं, वे स्वयंप्रकाशित हैं और निष्कर्म अवस्था में स्थित रहते हैं। हम उन्हें नमस्कार करते हैं।

पाशविमोक्षण

भगवान, जो हमें बंधनों से मुक्त करने वाले हैं, अपनी विशाल करुणा से हमें शरण देते हैं।

स्वज्ञान के स्वामी

भगवान उन लोगों के हृदय में निवास करते हैं, जो संसारिक बंधनों से मुक्त हो चुके हैं और जिन्होंने अपने आत्मज्ञान से उन्हें अनुभव किया है।

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चार पुरुषार्थ के स्वामी

भगवान को धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष की प्राप्ति के इच्छुक लोग भजते हैं। वे अनन्त करुणा के साथ हमारे देह को अमरता का वरदान दें।

अनन्य भक्त

भगवान के अनन्य भक्त, जो किसी अन्य फल की कामना नहीं करते, उनके अद्भुत और मंगलमय चरित्र को गाते हैं और आनंद के सागर में डूब जाते हैं।

परम ब्रह्म की स्तुति

हम उस परम अक्षर ब्रह्म की स्तुति करते हैं, जो अदृश्य है, आत्मा के योग से समझ में आता है और इंद्रियों के परे है।

सृष्टि का मूल

ब्रह्मा आदि देवता, वेद, सभी लोक और चराचर जगत, जो नाम और रूप के भेद में दिखते हैं, सब भगवान की ही कृपा से उत्पन्न होते हैं।

तत्वों का प्रवाह

जैसे अग्नि से निकलने वाली ज्वालाएँ पुनः उसमें समा जाती हैं, वैसे ही भगवान से यह गुण और शरीर सर्ग उत्पन्न होते और विलीन होते हैं।

भगवान का स्वरूप

भगवान न देवता हैं, न असुर, न मनुष्य, न पशु, न स्त्री, न पुरुष। वे गुणों और कर्मों के परे हैं, और सभी निषेधों से मुक्त हैं।

जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति

मैं न इस जीवन में, न अगले जीवन में किसी सांसारिक भोग की इच्छा रखता हूँ। मैं चाहता हूँ कि भगवान मुझे उस लोक का दर्शन कराएँ, जो माया से आच्छादित नहीं है।

विश्व का सृजनहार

मैं उस भगवान को प्रणाम करता हूँ, जो इस सम्पूर्ण विश्व का सृजनकर्ता और ज्ञाता है।

योगियों के ईश्वर

योगी, जो अपने कर्मों को समाप्त कर चुके हैं, वे भगवान का ध्यान करते हैं। मैं उन योगियों के स्वामी को प्रणाम करता हूँ।

अनन्त शक्ति के स्वामी

भगवान, जो अनन्त शक्ति के स्वामी हैं, मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ। उनकी अपार शक्ति से यह संसार बना है।

अहंकार से मुक्त

भगवान की माया से आच्छादित जीव अपना वास्तविक स्वरूप नहीं जानता। मैं भगवान की शरण में जाता हूँ।

श्री शुकदेव उवाच

इस प्रकार गजेन्द्र ने भगवान की स्तुति की। उसकी स्तुति सुनकर भगवान तुरंत गरुड़ पर सवार होकर आए और अपने चक्र से ग्राह को मारकर गजेन्द्र की रक्षा की।